Sunday 17 July 2011

दुनिया इतनी छोटी तो नहीं

सूरज की गुनगुनी रोशनी जब खिड़की की जाली और झीने पर्दे से छनकर उसके शरीर पर चमकने लगी, तो उसकीआंखें खुल गईं। दीवार पर लगी घड़ी पर आदतन निगाह पड़ी, तो वह चौंक गई। रोजमर्रा की जिंदगी में तो अब तक वह सुबह की लंबी सैर करके चाय की चुस्कियों के साथ अखबार की सुर्खियों को जज्ब कर चुकी होती। हां, सिर्फ सुर्खियां...। इससे ज्यादा उसकी अखबार में कोई दिलचस्पी नहीं। उसके बाद स्नान, पूजा और योग केलिए सवा घंटा...।
‘क्या सुबह-सुबह बाथरूम घेर कर बैठ जाती हो।’ नवीन से क्लेश की शुरुआत इसी से हो जाती है।
‘तुम अपने नहाने का वक्त बदल क्यों नहीं लेते...।’
‘क्यूं?...और तुम महारानी की तरह अपने शिड्यूल में कोई चेंज नहीं करोगी।’
‘क्या नहा धोकर घूमने जाया करूं...?’
‘दिस इज योर प्रॉब्लम...। मुझे ठीक टाइम पर बैंक पहुंचना जरूरी है।’
‘और मुझे नहीं...। बीवी की नौकरी को तो सरकारी पेंशन समझते हो न...।’
‘बस बहस करा लो तुमसे...। पूरा दिन खराब हो जाता है...।’ नवीन फिर देर तक बड़बड़ाता रहता। दिन की शुरुआत में ही तनाव का सूत्रपात हो जाता। दोनों ओर चुप्पी तन जाती। नवीन बिना नाश्ता किए निकल जाता और देर रात अजनबी की तरह लौटता।
अब पिछले तीन महीने से पूरा वक्त उसका अपना है। कभी समय उसे एकदम पीछे छोड़कर कहीं आगे खड़ा उसकी खिल्ली उड़ाता था। उसके पूरे वजूद को पिछड़ने और पूरी तरह पस्त होने का आभास कराता था। किंतु अब जीवन का प्रत्येक क्षण उसकेसाथ जुड़ा महसूस होता है। वक्त का हर लम्हा उसे बड़ा अपना लगता है। अजब सी सुखद प्रतीति देता हुआ, उसकी बाह्य दुनिया और अंतरंग को थामे हुए। जीवन को अपनी शर्त पर जीने का उत्साह लिए हुए। शर्तें जो बड़ी सामान्य व सहज थीं। किसी भी प्रकार की जटिलता से मुक्त। ठीक-ठाक नौकरी, दो, तीन कमरों का सम्मानजनक आवास, रोजमर्रा की भौतिक सुविधाएं, सामंजस्य और सद्भाव से परिपूर्ण एक अदद पति...।
पर जीवन खुशियों का पर्याय तो नहीं है। कभी सतरंगी छटाएं तो कभी दमघोंटू घटाटोप हर लम्हे के साथ उसे प्रभावित करते हैं। कभी परिंदों की तरह हम खुले आकाश में डूबते उतराते हैं, तो कभी क्षतविक्षत होकर किसी अंधेरे कोने में कराहते रहते हैं। पर वक्त केउसी बदनुमा चेहरे में कभी आप जीवन की अर्थवत्ता तलाशते हैं और संतोष और संतृप्ति से आप्लावित महसूस करते हैं।
सुमेधा अलसाई-सी देर तक बिस्तर पर लेटी रही है। पास रखे जग से पानी पीने का मन नहीं हुआ और किचन में जाकर चाय तैयार करने का तो खयाल भी उसके मन में नहीं आया। एक मुकम्मल सुकून उसकेअंदर स्पंदित हो रहा है। जीवन में आजादी का एक नया अर्थ उसे समझ आया था - निर्विघ्न, स्वच्छंद और अवरोध रहित...। सब कुछ नितांत वैयक्तिक, सिर्फ निज केखातिर। इसी निजता की रक्षा करने केलिए उसने यह कदम उठाया था।
कभी यह बेड टी ही पूरे दिन में कड़वाहट घोल जाती थी। नवीन उठते ही चाय की रट लगाता - एक नहीं, तीन कप चाय और उसमें जरा सा विलंब उसे असहनीय लगता।
‘अपने आप भी कभी चाय बना लिया करो।’ सुमेधा कभी चिढ़कर कह देती।
वह बौखला उठता। वाक् युद्ध और कलह का श्रीगणेश हो जाता। एख मनहूस संवादहीनता उनकेबीच आकर पसर जाती। यह क्रम विवाह के कुछ वर्षों बाद ही आरंभ हो गया था। इस बीच सुरभि का जन्म हो गया और सुमेधा की व्यस्तताएं और विकराल रूप धारण करने लगीं। सुरभि जब थोड़ी बड़ी हुई तो उसे क्रेच में छोड़ना नवीन को कतई नहीं भाया। उसने लंबी छुट्टी लेने का सुझाव दिया। पर सुमेधा अपने पूरे अवकाश का उपभोग कर चुकी थी। वह नौकरी छोड़ने की जिद करने लगा। सुमेधा इस पर किसी भी दशा में सहमत नहीं थी। नवीन के सारे तानों और उलाहनों को नजर अंदाज कर वह अपना काम करती रहती।
बेड केसिरहाने टिककर उसने जग से पानी उड़ेल कर गिलास भरा और उसे धीरे-धीरे सिप करने लगी है। लगा ही नहीं कि वह पानी पी रही है, जिसे अकसर गले में सीधे गटकने का अभ्यास था उसका। उसे समझ ही नहीं आया कि उसके अंदर क्या हो रहा है। बाहर से सबकुछ सामान्य, शांत और स्थिर दिखने वाला क्या उसकेअंतर्तम में इसी तरह निर्लिप्त और निर्विघ्न है, सुसुप्त और उद्वेगहीन...। याकि स्वप्रपंच है, छलावा अथवा आडंबर...? अथवा मन की उद्विग्नता, भावहीनता की हद तक उसकेअंतरंग को जड़ कर चुकी है, जो भविष्य में दर्द के नए स्वरूप के साथ प्रकट होगी, ठीक एनेस्थीसिया की तरह, जो अपने प्रभाव की समय सीमा केबाद देह में पीड़ा और कराह का उत्तुंग ज्वार पैदा करता है।
अपने अपने हाथों को देखा।
‘तुम्हारी उंगलियों पर जान देने का मन करता है....’
उसने अपने हाथ उलट कर सीधे किए।
‘तुम्हारी हथेलियों में वह मादकता है, जो लड़कियों के होठों में नहीं होती...।’
उसने अपनी मुट्ठियां कस कर भींच ली हैं। अंदर ही अंदर तेज झल्लाहट महसूस की उसने। अप्रासंगिक बातों का स्मरण, जिनका वर्तमान से कोई सरोकार नहीं। लापरवाही से उसने अपना सिर एक ओर झटक दिया। जूड़े में बंधे बाल दोनों कंधों पर बिखर गए।
‘तुम्हारे खुले बाल मुझमें अजीब सी उत्तेजना भरते हैं। अंधेरे में जुगनुओं के झुंड की तरह तुम्हारी आंखें नाक और होंठ जगमगाने लगते हैं।’
वितृष्णा से उसके होंठ सिकुड़ गए। सामने लगे शीशे में उसे अपना चेहरा विद्रूप नजर आने लगा। मन हुआ कि कोई भारी चीज दर्पण पर दे मारे। नवीन ने ही जिद करके बेड के सामने यह शीशा लगवाया था।
‘सुमि, कभी प्यार करते समय अपने को शीशे में देखा करो...। पूरी मेनका लगती हो...।’
गिलास स्टूल पर रखकर वह निष्चेट बिस्तर पर पसर गई है। अब दर्पण आंखों से ओझल हो गया। उसे बड़ी राहत का अहसास हुआ। मन में कसैलापन भर गया था। स्मृतियों की गुंजलक कहीं अंदर तक सालने लगी थी। कुछ यादें ठंडे फाये की मानिंद छटपटाते मन को सुख और सुकून देती हैं, तो कुछ स्मृतियों की नुकीली किरचें हृदय को लहूलुहान कर जाती हैं। उनसे अविरल होता रक्तस्राव पूरे वजूद को जीर्ण शीर्ण कर जाता। फिर ढहने के अतिरिक्त और क्या विकल्प है, चाहे वह देह हो अथवा रिश्ता...।
मानसिक स्तर पर दरकाव बहुत पहले शुरू हो गया था। पर देह का मिलन जारी था। उसके बाद जहां नवीन पूर्ण तृप्ति अनुभव कर मुंह पलट कर गहरी नींद में डूब जाता, वहीं सुमेधा गहरी वितृष्णा से अंदर ही अंदर जूझती रहती। यह सब क्या है?...क्यों है? तन की क्षुधा मन की प्यास से संबद्ध क्यों नहीं हो पाती। यह अलगाव रिश्ते को कितना खोखला बना देता है? काम की क्षणिक उत्तेजना हृदय में कितना गहरा अवसाद पैदा कर जाती है और फिर मन तीखे पश्चाताप और क्षोभ से घिर आता।
पता नहीं कर्तव्य बोध अथवा समर्पण भाव में कुछेक वर्ष बीत गए। पर कहीं अंदर प्रतिरोध की प्रच्छन्न पृष्ठभूमि तैयार होती गई-अनचाहे, बिना सोचे...।
तब एक साधारण साक्ष्य ने जीवन उलट-पुलट कर दिया था। विश्वास की झीनी पर्त चिंदी-चिंदी होकर घर, ऑफिस और फिर परिवार में फड़फड़ाने लगी थी। निजीत्व और सार्वजनिकता के बीच की मोटी दीवार भरभरा कर ढह गई और तब अलगाव ही एकमात्र विकल्प था।
देहरादून में एक सप्ताह सुरभि के पास रह कर वह लौटी, तो घर पूरी तरह चाक-चौबंद था। बेडरूम साफ-सुथरा, नवीन के कपड़े और तमाम चीजें अपनी जगह पर और सभी बर्तन किचन में...।
वह हैरान थी। पहले जब भी लंबे अंतराल केबाद वह घर आती, तो घर की अराजकता को व्यवस्थित करने में खासा वक्त लगता था। मन ही मन वह यह सोच कर प्रसन्न हुई कि आखिर बढ़ती उम्र आदमी को जिम्मेवारी का अहसास करा जाती है...। बाथरूम में नहाकर कपड़े बदलते समय उसकी नजर शीशे पर पड़ी। जहां कुछेक बिंदियां हर वक्त चस्पां रहती थीं। उसकी निगाह दो ऐसी बिंदियों पर पड़ी, जो अपनी याद में उसने कभी प्रयोग की ही नहीं थीं। उसका चौंकना लाजमी था। वह देर तक गौर से उन्हें देखती रही। उनमें ताजगी थी, डिजाइन और चमक बिलकुल अलग। किसकी हैं ये बिंदियां..? एकाएक धुंधले से कुछ स्त्री चेहरे उसकेजेहन में उभरते गए। उसकेहाथ पैर कांपने लगे और आंखें डबडबा उठीं।
पिछले दो-तीन सालों से मन में अविश्वास के बीज जमने लगे थे। उसमें मोबाइल की खासी भूमिका थी। नवीन का फोन वक्त बेवक्त बजने लगता और वह तुरंत इधर-उधर हटकर बात करने की कोशिश करता। कभी सुमेधा ने फोन के बारे में पूछ लिया, तो अपने दो-चार दोस्तों केनाम ले लेता, जबकि सुमेधा वर्षों से इन मित्रों से वार्तालाप की भागीदार रही थी। शुरू में उसने टोका भी, ‘सुनील भइया से फोन पर इधर-उधर जाने की क्या जरूरत है। तुम आराम से बात करो, मैं कोन सा कान गड़ाये रहती हूं।’ बाद में कुछ कहना उसने बंद कर दिया, पर संदेह ने अपनी जड़ें जमाना आरंभ कर दिया था।
आज इसी शक पर प्रमाण की एक पर्त चस्पा हो गई थी। किसी तरह बाथरूम से वह बाहर आई और बरामदे में पड़ी कुर्सी पर धम्म से धंस गई। उसे लगा कि पूरा बदन जल रहा है। कभी दिल की धौंकनी कानों तक आर्तनाद करती, तो कभी हृदय डूबता सा महसूस होता। कभी हथेलियों और माथे पर पसीना सा चुहचुहा उठता, कभी वहां एक सर्द अहसास...।
रसोई में बाई खाना बना रही थी। उसकेअंदर प्रश्नों केझाड़ उग आए थे, जिन्होंने उसे बेचैनी और छटपटाहट से भर दिया था, ‘मालती, पीछे कोई आया था क्या...?’ उसने कांपते स्वर में पूछा।
‘मुझे न मालूम बीबी जी...।’
‘क्यों तू रोज सुबह शाम नहीं आती थी...?’
‘कों न आती...बस दो दिन साब ने नागे केलिए कह दिया था। शायद कहीं बाहर गए थे...।’
सुमेधा चौंक गई। नवीन और शहर से बाहर...? प्रायः रोज ही उनकी बात हुई थी और नवीन ने कभी जिक्र तक नहीं किया...। बैठे-बैठे वह थर-थर कांपने लगी।
‘और जब तू आई, तो घर-रसोई सब साफ-सुथरा था...।’ अपने अंदर आए उबाल को उसने जब्त करते हुए पूछा।
‘घर तो साफ था, पर बर्तन तो ढेर सारे गंदे थे...।’
उफ्फ...। उसके दिमाग की नसें चटखने लगीं। पूरा बदन शिथिल और लुंजपुंज हो गया। उसने आंखें बंद कर सर कुर्सी की बैक पर लुढ़का दिया। अंदर दावानल दहक रहा था। मानो उसका पूरा वजूद, समस्त विश्वास, सारा त्याग और जीवन भर संजोया प्यार आग की लपटों के बीच धू-धू कर जल रहे हों।
‘बीबी जी आपकी तबीयत...?’ मालती ने उसे पानी लाकर दिया। बिना आंखें खोले उसने पानी गटक लिया। फिर पास रखे फोन को उसने उठाया।
‘नवीन, फौरन घर आओ...।’
‘क्यों? क्या हुआ...?’
‘यहां आओ, तब बात होगी...?’ क्रोध के तीक्ष्ण आवेग से उसकी आवाज लड़खड़ा गई।
‘पर बात क्या है...?’ नवीन के उत्तर में झुंझलाहट थी।
‘फोन पर नहीं बता सकती...।’ उसने पूरी ताकत से चीखकर कहा।
‘पर अभी मैं नहीं आ सकता...।’ नवीन ने उतनी ही बेरुखी से कहा और फोन काट दिया। नवीन केरू खे और सपाट उत्तर से वह अंदर तक हिल गई। बेबसी और क्रोध ने उसे पागल बना दिया। उसके हाथ फड़कने लगे। आंखें जलने लगीं। मन हुआ कि तुरंत नवीन के बैंक चली जाए और पूरे जग के सामने उसकी करतूतों का भंडाफोड़ करे। उसने दोबारा फोन मिलाया। कुछ रिंग केबाद फोन काट दिया नवीन ने।
इतना घिनौना काम करके कोई व्यक्ति इतना दुस्साहस कैसे दिखा सकता है...।
अंदर उफनता आक्रोश असहनीय हो चला। उसकी आंखें बहने लगीं।
बोझिल कदमों से उठकर वह पलंग पर आकर पसर गई। अचानक उसके नथुनों में बजबजाती दुर्गंध फैलने लगी। चादर, तकिए केगिलाफ नोंच कर उघाड़ दिए और फिर फूट-फूट कर रोने लगी। सफर की थकान ने कब उसे नींद में धकेल दिया, उसे पता ही नहीं चला।
नींद खुलने पर जब नवीन से आमना-सामना होगा, तो क्या होगाः
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