अब तो जी, रहस्योद्घाटनों में भी रहस्य नहीं रहा। पहले भक्ति तक में रहस्य था। फिर कविता में भी रहस्य आया और रहस्यवाद खूब चला। पर अब तो रहस्योद्घाटनों में भी रहस्य नहीं रहा। जैसे ब्रेकिंग न्यूज में न्यूज नहीं है। जैसे फिल्मी गानों में रस नहीं रहा। जैसे बकौल सिद्धांतवादियों के राजनीति में सिद्धांत नहीं रहा और बकौल निराशावादियों के दुनिया में ईमानदारी नहीं रही। न देशभक्ति रही, न कुरबानी रही। यहां तक कि आशिकों की आशिकी भी न रही।
फिर भी कम से कम रहस्योद्घाटनों में रहस्य तो रहना ही चाहिए था। पर पता चला, वह भी नहीं रहा। उदाहरण के लिए, पिछले दिनों विकिलीक्स ने यह रहस्य उद्घाटित किया कि यूपीए की पिछली सरकार बचाने के लिए सांसदों को खरीदा गया था। भला बताइए, इसमें रहस्य क्या है? इस बारे में लोग सब तो जानते ही थे। बर्धन साहब खुलेआम कह रहे थे कि एक-एक सांसद पच्चीस-पच्चीस करोड़ में बिक रहा है। हां, यह जरूर है कि यह भाव बढ़ा-चढ़ाकर बताया जा रहा था, जैसे पिछले दिनों प्याज और सब्जियों के भाव बताए जा रहे थे। विकिलीक्स के मुताबिक, वास्तव में भाव तो दस करोड़ का ही था। पर इसे रहस्योद्घाटन नहीं माना गया। रहस्योद्घाटन तो इसे माना गया कि हमारे देश के सांसद बिके।
एक और रहस्योद्घाटन आया कि भाजपा वास्तव में परमाणु करार के खिलाफ नहीं थी। इसमें भी कोई रहस्य नहीं था। सब जानते थे। बल्कि भाजपा तो खुद कह रही थी कि हम न अमेरिका के खिलाफ हैं, न उसके साथ व्यापार के खिलाफ और न ही उसके साथ करार के खिलाफ। उसने याद दिलाया कि उसी ने अमेरिका से दोस्ती आगे बढ़ाई, उसके साथ व्यापार बढ़ाया और अगर मौका रहा होता, तो परमाणु करार भी वही करती और यदि यह सरकार न रही और मौका आया, तो वही करेगी।
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