काफी दिनों से चले आ रहे वाद-विवाद और द्वंद्व का कल शायद अंतिम दिन हो। कल मेरे आने वाले कल पर एक ऐसा फैसला लिया जाएगा, जो पिछले छह माह से घर में वाद-विवाद का विषय बना हुआ है। देखना ये है कि ये फैसला परंपरागत रूढ़िवादी विचारधारा का समर्थन करते हुए बेटी केभविष्य को दांव पर लगाएगा या अनावश्यक अहितकारी सामाजिक व मानसिक दबाव के विरुद्ध सशक्त हो बेटी के हित को प्राथमिकता देगा। यही सोचते-सोचते खुली आंखों में संशय व भय का अंधकार लिए सारी रात बिता दी। अगले दिन सुबह नाश्ते की आवश्यकता किसी को न थी। सभी ड्राइंग रूम में एकत्रित हुए।
शांत, उलझे चेहरे, टकटकी लगाए पिताजी के मुख की ओर देख रहे थे। सभी के भावों और उत्सुकता को अधिक प्रतीक्षा न कराते हुए पिताजी ने कहा, ‘यह फैसला मेरे लिए ऐसा है जैसे किसी बच्चे से कहा जाए कि वो अपनी मां या पिता में से किसी एक का चयन करे। एक ओर मेरी सामाजिक मर्यादाएं और परंपराएं हैं, तो दूसरी ओर मेरी बेटी का हित। एक ओर हमारी ही जाति का एक अयोग्य लड़का है और दूसरी ओर गैर-बिरादरी परंतु बेटी के लिए उसकी पसंद का सर्वोत्तम चयन है जो उसके सुखद भविष्य की गारंटी भी है।
मेरी मान्यताएं गैर बिरादरी के चयन से मुझे रोक रही हैं, परंतु बेटी का प्यार, स्नेह और सुरक्षित भविष्य मुझे उसकी पसंद को अपनी पसंद बनाने के लिए बाध्य कर रहा है। सालों से चली आ रही विचारधारा के विरुद्ध एक नई सोच को अपनाना मेरे लिए वास्तव में कठिन है, परंतु शायद बेटी का हित और उसकी खुशी ही मेरी प्राथमिकता है। अतः मेरा फैसला उसके फैसले का समर्थन करता है। और मैं उसकी पसंद स्वीकार करता हूं।’ उनके शब्दों ने मुझे चौंका दिया। सभी की आंखें भर आईं और पिताजी ने मुझे गले से लगा लिया। सच उनका यह फैसला सबको चौंकाने वाला ही था।
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